नदी के किनारे फूस के घर में पैदा हुआ। गरीबी इतनी कि घर में खाने के दाने नहीं होते। कोई गेस्ट आता, तो इस ताक में रहता कि आज कुछ अच्छा खाना खाने को मिलेगा। जैसे-तैसे मम्मी-पापा ने हम तीन भाई-बहनों को पाला। खुद का झोपड़ी था, लेकिन पापा दूसरों की बिल्डिंग बनाते थे। वो राजमिस्त्री थे। मां को खेतों में काम करने के लिए जाना पड़ता था।
खाने के पैसे नहीं थे, तो किताबें खरीदने के लिए पैसे कहां से होते? पापा किसी तरह किताब-कॉपी खरीदने के लिए पैसे अरेंज कर पाते। मैं पुरानी किताबें खरीदकर पढ़ता। फटे-पुराने कपड़े पहनकर स्कूल जाता। बरसात के दिनों में बाहर से ज्यादा घर के अंदर पानी बरसता। किताबें भीग जाती थीं।
DSP बनने के 5 साल बाद पुलिस की वर्दी में पहली बार जब अपने गांव मां से मिलने गया, तो उनके खुशी के आंसू रुक नहीं रहे थे। उस वक्त भी मां खेत में काम कर रही थीं। उनकी नजरें बार-बार मेरे कंधे पर लगे स्टार्स को निहार रही थीं।’
पहले वीडियो में पटेल अपनी मां से मिलने खेत में पहुंच जाते हैं, जबकि दूसरे वीडियो में वो एक बुजुर्ग महिला को लिफ्ट देते नजर आते हैं। इसी दौरान महिला ने भाड़े के रूप में उन्हें 20 रुपए देना चाहा।
सुबह के करीब 10 बज रहे हैं। ग्वालियर से 50 किलोमीटर दूर घाटीगांव में बतौर सब डिविजनल पुलिस ऑफिसर (SDOP) तैनात डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस (DSP) संतोष पटेल से मेरी बातचीत हो रही है।
संतोष जब शुरुआती दिनों के बारे में बताते हैं, तो वो कई बार कहते हैं- ‘संघर्ष और मां-बाप के त्याग की बदौलत ही मैं यहां तक पहुंचा हूं।’
गाड़ी के ऊपर बजता सायरन और जलती पीली बत्ती। घाटीगांव के लिए जब हम निकलते हैं, तो ये पूरा इलाका डेवलपमेंट से कोसों दूर नजर आता है। बंजर, पथरीली जमीनें, गरीबी की चादर ओढ़े कच्चे मकान। पानी के लिए तरसते लोग।
कुछ महीने पहले ही संतोष की पोस्टिंग यहां हुई है। संतोष पटेल को ये इलाका देख अपने गांव की याद आ रही है।
वो कहते हैं, ‘मध्यप्रदेश के पन्ना जिले का देवगांव। ये इलाका भी उस वक्त कुछ ऐसा ही था। फर्क बस इतना है कि वहां थोड़ी बहुत खेती हो जाती है, यहां वो भी नहीं।’
वो कहते हैं, ‘सरकार ने दादा जी को पट्टे में जमीनें दी थीं। पेट पालने के लिए मम्मी-पापा दूसरों के खेतों में मजदूरी करने के लिए जाते थे। जहां हम लोग रहते थे, वो इलाका जंगल के बीच था। बगल से नदी बहती थी। इतनी भी खेती नहीं हो पाती थी कि हम लोगों के खाने के लिए अनाज भी पैदा हो पाए। बाद में पापा दूसरों की जमीन बंटाई पर लेकर खेती करने लगे, लेकिन सिर्फ खेती करके घर चलाना मुश्किल था।’
संतोष पटेल अपने मोबाइल में मम्मी-पापा की तस्वीर दिखा रहे हैं। वो कहते हैं, ‘मैं बहुत छोटा था। 8-10 साल की उम्र रही होगी। किसी तरह से गुजर-बसर करने के लिए कुछ पैसे मिल जाएं, इसलिए बरसात के दिनों में हम लोग वन विभाग में पेड़ लगाने का काम करते थे। तेंदू का पत्ता चुनते थे। इसी से बीडी बनाई जाती है। पापा शहद भी निकालते थे। ‘
संतोष कहते हैं, ‘बाद में पापा ईंट ढोने, दीवार बनाने का काम करने लगे। आज भी याद है कि मैं भी उनके साथ कुछ दिन काम करने के लिए गया था। धूप में पसीने से पूरा शरीर तरबतर हो जाता। सोचता था कि अनपढ़ होने की वजह से पापा को दो पैसे के लिए इतनी मेहनत मजदूरी करनी पड़ती है। पापा को कुआं बनाते हुए देख बहुत डर लगता था। भरी दोपहरी में पापा ईंट की जोड़ाई करते थे।
मुझे कुछ खाने-पीने का मन होता, तो एक बिस्किट या मिठाई के लालच में मैं लोगों के यहां तीन-तीन घंटे ईंट ढोता। पूरे हाथ छिल जाते थे।
कई बार ऐसा होता कि मैं पढ़ना नहीं चाहता, तो मां हंसिया थमाते हुए कहती- खेत में काम करने चलो। मैं जाता और दो-चार घंटे काम करने के बाद ही थक जाता। तब मां कहती- नहीं पढ़ोगे, तो पापा की तरह यही सब करना पड़ेगा।’
तस्वीर में मां को देखते हुए संतोष कहते हैं, ‘तब मुझे लगा कि पढ़ना ही सबसे आसान है, लेकिन जिस तरह के हालात थे। कभी-कभी पढ़ना भी बहुत बड़ा बोझ लगता था। सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था। किताब-कॉपी, पेंसिल की बहुत दिक्कत थी। मैं पुरानी किताबें खरीदकर पढ़ता।’
संतोष पटेल का ये पुराना मकान है।
संतोष ने 8वीं तक की पढ़ाई गांव से की। उसके बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए पन्ना आ गए।
संतोष बताते हैं, ‘अपने गांव के ही एक जानने वाले के रूम में रहता था। इसमें कोई सुविधा नहीं थी। दीवार पर प्लास्टर भी नहीं हो रखा था। कई किलोमीटर दूर से पीने का पानी ढोकर लाना पड़ता। बाहर चबूतरे पर नहाता। शौच के लिए भी करीब दो किलोमीटर दूर नदी किनारे जाना पड़ता। इसी दौरान मैं संस्कृत के श्लोक याद करता।
परिवार की आर्थिक स्थिति देख अधिकतर टीचर मुझसे पैसे नहीं मांगते थे। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि रूम का किराया दे पाऊं। मुझे याद है कि एक बार मैं एक दोस्त के यहां मकान मालिक से छुपकर रहने लगा। उस रूम में 2 लोग पहले से रहते थे। बिना परमिशन के मैं तीसरा रहने लगा। एक रोज मकान मालिक को शक हो गया। उसने डांट-फटकार कर रूम से भगा दिया।’