क्या आपकी जान को खतरा है? क्या आप सरकारी गनर के साए में रहते हैं? क्या आपके गनर के पास आपकी सिक्योरिटी के लिए असलहे के रूप में सरकारी कार्बाइन है? तो सावधान हो जाइए, क्योंकि मौका आने पर इस कार्बाइन से फायरिंग हो पाएगी, इसे लेकर चलने वाले गार्ड त्वरित एक्शन मोड में आकर फायरिंग कर पाएंगे, इसके बूते आपकी जान बच पाएगी, इन सारे भरोसो पर पूर्ण संशय है।
अपने प्राणों की आहुति देने वाले सिक्योरिटी गार्डों को क्या सिखाया जाता है कोई त्वरित एक्शन प्लान? क्योंकि यह सरकारी गनर आपकी दुश्मनी में खुद के प्राणों की आहुति तो दे सकते हैं, लेकिन हमलावरों पर त्वरित जवाबी कार्रवाई करना इनके लिए मुश्किल होता है। क्योंकि ऑन ड्यूटी त्वरित एक्शन प्लान का इनके पास न तो कोई एजेंडा होता है और न चार्ट। क्या हफ्ते या महीने में इन्हें किसी प्रकार की इनके सीनियर्स ट्रेनिंग देते है? यह इसलिए नहीं कि इनकी ड्यूटी में कोई कमी होती है, बल्कि इसलिए कि इनका ड्यूटी टाइम चुनौतीपूर्ण होता है।
बीएसपी विधायक राजू पाल हत्याकांड के प्रमुख गवाह उमेश पाल की हत्या के बाद सामने आए सीसीटीवी फुटेज में सिक्योरिटी गार्डों का जिस तरह का त्वरित जवाबी एक्शन दिखा, वह चिंता का विषय है। उसे देखने के बाद ऐसे सवाल उठने लाजमी है। महज 47 सेकंड में उमेश पाल और सरकारी कार्बाइनधारी दो गनर राघवेंद्र सिंह और संदीप कुमार को गोलियों से छलनी करने वाला नजारा बेहद खौफनाक था लेकिन उससे ज्यादा डरावना सिक्योरिटी गार्डों की तरफ से एक भी फायरिंग न किया जाना था।
ये है क्राइम सीन का प्वाइंट ऑफ व्यू
उमेश पाल की हत्या के क्राइम सीन पॉइंट पर 24 फरवरी की शाम साढ़े चार पौने पांच बजे एमपी/एमएलए कोर्ट से अपने मुकदमे में गवाही और अन्य प्रक्रिया पूरी होने के बाद उमेश पाल घर के लिए निकलते हैं। भतीजे की सफेद रंग की क्रेटा कार में उनके अलावा ड्राइवर प्रदीप शर्मा और दो गनर संदीप निषाद एवं राघवेंद्र सिंह थे। अपने घर जयंतीपुर, सुलेम सराय कार पहुंचती है। गली के सामने ड्राइवर प्रदीप शर्मा गाड़ी रोकता है।
आगे बैठा गनर राघवेंद्र सिंह कार से उतरता है। अभी राघवेंद्र सिंह कार से उतरकर पीछे बैठे उमेश पाल का गेट खोलने के लिए आगे बढ़ता ही है कि उमेश पाल गेट खोल कर खुद बाहर आ जाते हैं। उमेश पाल कार का गेट खोलकर जैसे ही दोनों कदम बाहर रखते हैं, पीछे से एक बदमाश आकर उन पर पिस्टल तान देता है। वह कुछ अचकचा जाते हैं, तब तक वह फायर कर देता है।
क्या सरकारी गनर की कार्बाइन लूट ले गए शूटर?
फायरिंग होते ही उमेश पाल वहीं गिर जाते हैं। अचानक से फायरिंग शुरू होने से उमेश पाल के गनर राघवेंद्र घबरा जाते हैं। राघवेंद्र अपनी कार्बाइन चलाने की कोशिश करता है, लेकिन चला नहीं पाता और वह भी वहीं गिर जाता है। उमेश वहां से उठकर गली के अंदर भागते हैं। उनके पीछे पिस्टल से फायरिंग करने वाला बदमाश जिसकी पहचान गुलाम के रूप में हुई है, गली के अंदर घुसता है और गोली मारकर पीछे आता है। कार के पास पड़े गनर राघवेंद्र की कार्बाइन पिस्टलधारी हमलावर गुलाम उठाता है और उसे लेकर वहां सड़क से गुजर रहे लोगों को धमका आता है।
कार्बाइन से एक भी फायर नहीं करता, आखिर क्यों?
इस बीच वहां पड़ा गनर उठकर जान बचाने की नीयत से गली के अंदर घुसता है। पीछे से उसी दौरान कार के पीछे से सफेद रंग का शर्ट पहने जिसे लोग बुद्धू मुस्लिम कह रहे हैं, झोले में बम लिए आता है और बम फेंकते हुए कार के आगे जाकर खड़ा होता है। राघवेंद्र उसके आगे से गली में भागता है। उसी दौरान बमबाज गनर के पीठ पर बम फोड़ देता है। जिससे वह घायल हो जाता है।
क्राइम सीन से गायब दिखे ड्राइवर की भूमिका सवालों के घेरे में
पूरे सीसीटीवी फुटेज में क्राइम सीन से कार ड्राइवर प्रदीप शर्मा और दूसरा गनर संदीप गायब है। शूटर कार के अंदर बैठे गनर निषाद पर ताबड़तोड़ फायरिंग करते है और वह अंदर से ही गोलियों से छलनी हो जाता है। तीन लोगों को तो गोली लगती है, लेकिन ड्राइवर प्रदीप शर्मा को खरोच तक नहीं आती। वह गाड़ी से निकलता है, और गाड़ी छोड़ कर भाग जाता है। आखिर कैसे और क्यों? क्या इस घटना में प्रदीप शर्मा का रोल संदिग्ध है? क्या उसने शूटरों की मुखबिरी की थी?
क्योंकि शूटर पहले से ही उमेश पाल की गली के बाहर की दुकानों पर खड़े होकर उनका इंतजार कर रहे थे। जाहिर सी बात है कि उन्हें कोई न कोई लोकेशन दे रहा था। फिर यह सवाल तो ड्राइवर की भूमिका का है, जो 3 महीने पहले ही उमेश पाल के यहां नौकरी करने आया था। उससे पहले के ड्राइवर आलोक कुमार ने नौकरी क्यों छोड़ी और प्रदीप शर्मा की एंट्री कैसे हुई। प्रदीप शर्मा का रोल क्या है? यह पुलिस अपनी जांच में निश्चित तौर पर तय करेगी, लेकिन सिक्योरिटी गार्ड राघवेंद्र सिंह और संदीप निषाद के प्राणों की आहुति की जिम्मेदारी किसकी है, यह भी तय करनी जरूरी है।
क्योंकि अगर इस बार भी यह जिम्मेदारी तय नहीं हुई तो सिक्योरिटी में तैनात पुलिसवालों की जान यूं ही जाती रहेगी। क्या कर में बैठे गनर की कार्बाइन ने भी दे दिया था धोखा? इलाहाबाद हाईकोर्ट के क्रिमिनल मामलों के जानकार एडवोकेट मुर्तुजा अली और मनीष द्विवेदी ने भी सरकारी असलहों पर सवाल उठाए हैं। क्या जो कार्बाइन सिक्योरिटी गार्ड राघवेंद्र सिंह और संदीप निषाद के पास थी, वह फायरिंग प्रक्रिया के लिए दुरुस्त थी? और अगर नहीं तो क्या सिक्योरिटी में चलने वाले गार्ड सिर्फ दिखावे के लिए कार्बाइन लेकर चलते हैं? उसका त्वरित उपयोग करना उनके लिए मुश्किल होता है? क्या सिर्फ वर्दी और खोखा बन चुके असलहे के बल पर ही वह हमलावरों में दहशत पैदा करना चाहते हैं? मुकाबले के मौके पर वह हथियार डाल देते हैं?
क्या जिस तरह से क्राइम सीन पर कार रुकने के बाद गनर और उमेश पाल कमोबेश चंद सेकेंड के अंतर में एक साथ उतरते हैं, वैसे ही होना चाहिए होता है? जब फायरिंग शुरू हुई तो बाहर खड़े गनर ने तो अपनी कार्बाइन से फायरिंग करने की कोशिश की लेकिन वह कर नहीं पाया। सवाल ये उठता है कि कार के अंदर बैठे गनर को भी क्या फायरिंग करने का मौका नहीं मिला या कोशिश करने के बावजूद कार्बाइन नहीं चली? सबसे अहम सवाल क्या कार के बगल पड़े सिपाही की कार्बाइन उठाकर लोगों को धमकी देने वाला शूटर कार्बाइन चलाना नहीं जानता था या कोशिश के बावजूद कार्बाइन नहीं चल पाई?
क्या शूटर गनर की कार्बाइन उठा ले गया या न चलने की वजह से वहीं फेंक दिया? ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके पॉइंट ऑफ व्यू तो बहुत छोटे हैं, लेकिन इनकी विस्तृत तस्दीक करना भी जरूरी है, क्योंकि इन्हीं सवालों में सिक्योरिटी के साए में चलने वाले लोगों की सुरक्षा निहित है।
शूटर ने भी की थी कार्बाइन चलाने की कोशिश
बीएसपी विधायक राजू पाल हत्याकांड के मुख्य गवाह उमेश पाल की हत्या निश्चित तौर पर कानून व्यवस्था के लिए एक चुनौती है। इस घटना ने जहां कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं, वहीं घटना के दौरान सिक्योरिटी गार्डों की असहजता और पहले से घात लगाकर बैठे बदमाशों का बेखौफ अंदाज आम लोगों को डरा दिया है। सीसीटीवी फुटेज में बदमाश जिस तरह से सरकारी गनर राघवेंद्र सिंह की सरकारी कार्बाइन उठाकर राहगीरों और मोहल्ले के लोगों को धमकाता दिख रहा है, वह उसकी निडरता से कहीं ज्यादा पुलिसिया इकबाल पर सवाल खड़े कर रहा है।
इस घटना को कारित करने वाले बदमाशों का बेखौफ अंदाज और उमेश पाल के साथ चलने वाले दो सरकारी गनरों के कार्बाइन की खामोशी कहीं ना कहीं सरकारी सिक्योरिटी के साए में चलने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय है। क्या सिर्फ दिखावे के लिए थे ये असलहे ? पिस्टल और देसी बम लेकर आए बदमाश हाईकोर्ट के अधिवक्ता और एक साथ कम से कम 38 राउंड फायरिंग करने वाली कार्बाइन से लैस दो वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्डों को लहूलुहान करके मौत की नींद सुला जाते हैं और उन पर एक भी गोली नहीं चलती। जिससे कम से कम वह असहज तो दिखे हों, क्यों?
क्या पुलिस वालो को मिलने वाली कार्बाइन सिर्फ दिखावे के लिए होती है? क्या कार्बाइन चलाने की ट्रेनिंग पुलिस वालों को सिर्फ ट्रेनिंग पीरियड में ही मिलती है? बाद में वह सिर्फ उसे शोपीस के रूप में ही लेकर चलते हैं। क्योंकि अगर कार्बाइन चलने लगती तो भले ही जो क्षति उमेश पाल और गनर को हुई लेकिन हो ना हो शूटरो के तरफ से भी कुछ न कुछ हानि जरूर होती, जो हमलावरों के लिए सबक होती।
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